साधना और जीवन

 

                             तुम्हारा जीवन...

 

       मैं केवल अज्ञान की निश्चेतना और अहं की सीमाओं की बलि की मांग कर रही हूं--लेकिन कितने अद्वितीय और अतुल्य लाभ के लिए !

७ मई, १९३७

 

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        अपने जीवन को उपयोगी बनाओ ।

 

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         तुम्हारा जीवन दिव्य सत्य के लिए सतत खोज हो, तब वह जीने योग्य होगा ।

 

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          तुम्हारा जीवन पूर्णत: ऐकान्तिक रूप से परम प्रभु द्वारा शासित हो ।

 

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           तुम्हारी उच्चतम अभीप्सा तुम्हारे जीवन को व्यवस्थित करे ।

 

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           अपनी अभीप्सा को तीव्र ओर निष्कपट बनाओ और यह कभी न भूलो कि तुम भगवान् के बालक हो । यह तुम्हें कोई भी ऐसी चीज करने से रोकेगा जो भगवान् के बालकों के अयोग्य हो ।

 

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            सब कुछ हर एक की वृत्ति ओर उसके उपगमन की सचाई पर निर्भर है ।

 

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२४८


          सब कुछ आन्तरिक मनोभाव पर निर्भर है ।

१७ अप्रैल, १९४७

 

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परिवर्तन

 

         ठीक करना और मिटाना, दोनों सम्भव हैं लेकिन दोनों हालतों में, यद्यपि अलग-अलग मात्रा में, स्वभाव और चरित्र के रूपान्तर की जरूरत होती है । अपने कर्म के परिणामों को बदलने की आशा करने से पहले जो चीज गलत तरह से की गयी है उसे पहले अपने अन्दर बदलना चाहिये ।

११ जनवरी, १९५१

 

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        केवल तभी, जब लोग सचमुच अपनी चेतना को बदलना चाहते हैं, उनके कार्य भी बदल सकते हैं ।

 

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         चेतना का परिवर्तन और जब हमारी चेतना बदलेगी तब हम जानेंगे कि परिवर्तन क्या हे ।

 

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बदलो...

 

       १. घृणा को सामब्जस्य में

       २. ईर्ष्या को उदारता में

        ३. अज्ञान को ज्ञान में

        ४. अन्धकार को प्रकाश में

        ५. मिथ्यात्व को सत्य में

        ६. धूर्तता को भलाई में

        ७. युद्ध को शान्ति में

        ८. भय को अभय में

२४९


        ९. अनिश्चितता को निश्चिति में

        १०. सन्देह को श्रद्धा में

        ११. अव्यवस्था को व्यवस्था में

        १२. पराजय को जय में ।

अक्तूबर, १९५१

 

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         स्वाधीनता और व्यवस्था

         भ्रातृत्व और स्वतन्त्रता

         समानता और क्रम-परम्परा

          एकता और विभिन्नता

         प्रचुरता और न्यूनता

         प्रयास और विश्राम

         क्ति और अनुकम्पा

         विवेक और परोपकारिता

         उदारता और मितव्ययिता

         अपव्यय और कंजूसी ।

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         परिवर्तन : उपलब्धि का आरम्भ-बिन्दू ।

 

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         परिवर्तन : सत्ता की सभी गतिविधियों का भगवान् की ओर मुड़ना ।

 

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          पुनरुत्थान : पुरानी चेतना का झड़ जाना और फिर उसमें से सच्ची सत्ता का जागना ।

 

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           नव जन्म : सच्ची चेतना का, हमारे अन्दर भागवत उपस्थिति का जन्म ।

२५०


           सिद्धि : हमारे प्रयासों का लक्ष्य ।

 

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           सिद्धि : वही जिसके लिए हम अभीप्सा करते हैं और जिसके लिए अनथक प्रयास करते चले जायेंगे, चाहे उसमें कितना भी समय क्यों न लग जाये ।

 

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            सिद्धि की शक्ति : सिद्धि मिल जाने से सभी बाधाएं जीत ली जायेंगी ।

 

ठीक चीज करो

 

           अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा आदर किया जाये तो हमेशा आदरणीय रहो ।

 

          क्या तुम सत्य की चाह करते हो ?  सच्चे बनो ।

          क्या तुम सत्य की मांग करते हो? सच्चे बनो ।

 

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           अच्छा करने की कोशिश करो और यह कभी न भूलो कि भगवान् तुम्हें हर जगह देखते हैं ।

 

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           मुंह में मिठाई की अपेक्षा अच्छा कार्य हृदय के लिए ज्यादा मीठा होता है ।
 

           जो दिन अच्छा काम किये बिना बीतता है वह बिना आत्मा का दिन होता है ।

१६ अक्तूबर, १९५१

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२५१


      भलाई के प्यार के लिए भला करो, इनाम पाने की आशा से नहीं । भला होने के आनन्द के लिए भले बनो औरों की कृतज्ञता पाने के लिए नहीं ।

१९५२

 

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       सुखद में मनोहरता होती है लेकिन अच्छा अच्छा ही होता है और मनोहरता के बिना भी अच्छा हो सकता है ।

 

 

 

        ठीक होने का केवल एक ही रास्ता है लेकिन गलत होने के रास्ते अनेक हैं ।

 

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        अगर तुम ठीक हो तो सब कुछ ठीक होगा ।

१७ नवम्बर, १९५२

 

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        अपने अन्दर और अपने द्वारा चेतना को काम करने दो । सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

१० अप्रैल, १९५४

 

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         भागवत कृपा से हमेशा यह प्रार्थना करो कि वह तुमसे हमेशा ठीक चीज ठीक तरह से करवाये ।

 

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        हमेशा वही करो जिसे तुम अच्छे-से- अच्छा समझते हो, चाहे वह करने में सबसे अधिक कठिन क्यों न हो ।

२ मई, १९५४

 

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२५२


      अपने- आपको भूल जाने का सबसे सरल मार्ग कौन-सा है ?  हमेशा ठीक चीज, ठीक ढंग से, ठीक समय पर करो ।

 

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        हर रोज, हर क्षण, हम हमेशा ठीक चीज ठीक तरह से करने की अभीप्सा करेंगे ।

२२ जून, १९५४

 

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         केवल तभी जब हम विक्षुब्ध न हों,  हम हमेशा ठीक समय पर, ठीक तरह से ठीक चीज कर सकते हैं ।

 

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         चीज हमेशा ठीक होती हे जब ठीक भावना से की जाये ।

२४ अगस्त, १९५७

 

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         तुम्हारे पास जो कुछ आये, अगर तुम उसे ठीक भाव से लो तो वह तुम्हारे लिए सर्वोत्तम हो जायेगा ।

 

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          सही गतिविधि : सभी गतिविधियां उचित प्रेरणा के अधीन ।

 

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          गलत गतिविधियों को ठीक में बदलना : बहुत अधिक सद्‌भावना जो हमेशा रूपान्तरित होने के लिए तैयार हो ।

 

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          एक ऐसा क्षण होता है जब उचित मनोभाव सहज रूप से बिना प्रयास के आता है ।

 

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२५३


         उचित मनोभाव के लिए अभीप्सा : ऊर्जापूर्ण, तत्पर,  दृढ़निश्चयी ।

 

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         उचित मनोभाव : सरल और खुला हुआ, यह बिना किसी जटिलता के होता है ।

 

ऊंचे उड़ो

 

         हमारी चेतना एक छोटे-से पक्षी की तरह है, उसे अपने पंखों का उपयोग करना सीखना चाहिये ।

 

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         ऊंचाइयों की ओर उड़ान भरो ।

 

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          बहुत ऊंचे उड़ो और तुम गहन गहराइयों को खोज लोगे ।

९ जून, १९५४

 

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         ऐसा दिन आता है जब हमारे अन्दर और हमारे चारों ओर के सभी अवरोध गिर जाते हैं और हमें उस पक्षी की तरह अनुभव होता है जो बिना किसी बाधा के उड़ने के लिए पर तोल रहा हो ।

६ दिसम्बर, १९५४

 

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         सभी बन्धनों से मुक्त, ऊंचाई-से-ऊंचाई की ओर उड़ने वाली सत्ता वह सत्ता है जो भागवत रूपान्तर की सुखद खोज कर रही है ।

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२५४


      देदीप्यमान सूर्य क्षितिज से ऊपर उठ रहा है । यह तुम्हारे प्रभु हैं जो तुम्हारी ओर आ रहे हैं ।

 

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      समस्त जगत् जाग उठा है और उनकी भव्यता के सम्पर्क के आनन्द में अंगड़ाई ले रहा है ।

 

      उभरती हुई, खुलती हुई धरती की तरह, बढ़ते हुए पेड़ की तरह, खिलते हुए फूल की तरह, गाते हुए पक्षी की तरह, प्रेम करने वाले मनुष्य की तरह उनका प्रकाश तुम्हारे अन्दर प्रवेश करे और हमेशा बढ़ती हुई, विस्तृत होती हुई प्रसन्नता में चमक उठे । यह प्रसन्नता स्थिर रूप से आगे बढ़ती जाये जैसे आकाश में तारे बढ़ते हैं ।

 

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       आध्यात्मिक वातावरण : हल्का, तरल, स्पष्ट, पारदर्शक और इतना स्वच्छ !

 

मनुष्य को भगवान् की सहायता

 

       हमारे विचार अभी तक अज्ञानभरे हैं, उन्हें प्रकाशमान और प्रबुद्ध होना चाहिये ।

 

       हमारी अभीप्सा अभी तक अपूर्ण है, उसे शुद्ध होना चाहिये ।

 

       हमारा कर्म अभी तक शक्तिहीन है, उसे प्रभावशाली बनना चाहिये ।

२५ अगस्त, १९५४

 

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        नीरवता में परम प्रभु से आने वाली आशा को सुनो । तुम्हारे अन्दर उसे कार्यान्वित करने की क्षमता आ जायेगी ।

 

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        यह जानो कि भगवान् क्या चाहते हैं और तुम्हें प्रभुता प्राप्त हो जायेगी ।

 

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२५५


        आन्तरिक आज्ञा मानसिक धारणा से अधिक निश्चित होती है ।

 

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        तर्कबुद्धि का शासन तब तक समाप्त नहीं होना चाहिये जब तक चैत्य विधान न आ जाये जो 'भागवत इच्छा' को अभिव्यक्त करता है ।

 

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          विरोधी सुझावों को अस्वीकार करने की शक्ति : वह शक्ति जो भगवान् के साथ सचेतन ऐक्य से आती है ।

 

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          भागवत चेतना के साथ ऐक्य के बिना बुद्धिमानी नहीं प्राप्त की जा सकती ।

 

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            सर्वांगीण बुद्धिमत्ता : जो भागवत ऐक्य से प्राप्त होती है ।

 

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            सृष्टि की सभी चीजों की तरह बुद्धिमत्ता भी क्रमश: प्रगतिशील है ।

 

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            थोड़ी-सी बुद्धिमत्ता का स्वागत है ।

 

 

 

            निश्चेतना की गहराइयों में भी भागवत चेतना देदीप्यमान और शाश्वत रूप से चमकती है ।

 

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            निश्चेतना में क्रियाशील भागवत संकल्प सर्वशक्तिमान् होता है, भले हम उसे न जानते हों ।

२५६


       वस्तुत: मुझे विश्वास है कि जब निश्चेतना पर विजय पा ली जायेगी तो फिर शर्तों की कोई जरूरत न रहेगी । सब कुछ भागवत कृपा का मुक्त निर्णय होगा ।

 

 

      यूनानियों में ताल के अनुरूप गति का, वस्तुओं और रूपों में सामञ्जस्य का बहुत पैना और असाधारण सौन्दर्य बोध था । साथ ही उनमें कठोर नियति के आगे मनुष्य की असमर्थता का भी उतना ही तीव्र भान था जिससे कोई बच न सकता था । नियति की कठोरता उनके पीछे भूत की तरह लगी रहती थी और ऐसा लगता है कि उनके देवता भी उसके वश में थे । उनकी पुराण-कथाओं और उपाख्यानों में हम भागवत कृपा और अनुकम्पा का लेशमात्र भी नहीं पाते ।

 

      अनुकम्पा और भागवत कृपा का यह विचार यूरोप में बाद में ईसाई धर्म के साथ आया जब कि एशिया और विशेषकर भारत में उससे बहुत पहले यह बौद्ध शिक्षा का सारतत्त्व रहा ।

 

      तो सभी यूनानी कहानियों, गाथाओं और दुःखान्त नाटकों में हम नियति के आदेशों की कठोर कूरता पाते हैं जिन्हें कोई भी नहीं झुका सकता ।

 

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      जो श्रद्धा वैश्व भगवान् के प्रति जाती है वह लीला की आवश्यकताओं के कारण अपनी क्रियाशक्ति में सीमित रहती है ।

 

      इन सीमाओं से पूरी तरह छुटकारा पाने के लिए तुम्हें परात्पर भगवान् तक पहुंचना चाहिये ।

 

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       एकमात्र आशा है अदृश्य दिव्य शक्ति की क्षमता से ।

 

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        केवल परम चेतना ही तुम्हारे 'कर्म' पर असर डाल सकती है और

२५७


यह चेतना स्वतन्त्र है, समस्त मानव चेतना से ऊपर है ।

 

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       परम शक्ति सभी गतिविधियों को हाथ में ले रही है । वह उन्हें सत्य में बदल देगी । किसी प्रयास की जरूरत नहीं, मन से या किसी और यन्त्र से सहायता की कोई जरूरत नहीं है, यहां तक कि अब व्यक्तिगत स्वीकृति की भी जरूरत नहीं रही ।

 

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        जो पूर्वनिर्दिष्ट हैं उन्हें आन्तरिक मार्गदर्शक की सहायता मिलती है ।

 

 

 

         भागवत शुभचिन्ता : हमेशा सक्रिय, जब हम उसे नहीं देखते तब भी ।

 

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          आओ, हम इस भागवत शुभचिन्ता को, जिसे प्राय: नहीं समझा जाता, समझें और कृतज्ञता के साथ स्वीकार करें ।

 

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           सर्वांगीण सान्त्वना : जिसे मनुष्य केवल भगवान् में ही पा सकता है ।

 

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            सान्त्वना : एक आशीर्वाद जो भगवान् हमें देते हैं ।

 

सुन्दरता

 

             कलात्मक रुचि सुन्दर चीजों से प्रसन्न होती है और अपने- आप सुन्दर होती है ।

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२५८


       कलात्मक संवेदनशीलता : कुरूपता के साथ लड़ने के लिए एक शक्तिशाली सहायक ।

 

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        कलात्मक कार्य : सुन्दरता की सेवा में सभी कार्य ।

 

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          माताजी,

 

                क्या हम 'क' से (जो कलाकार है) ऐसे काम करने कै लिए कह सकते हैं जो कलात्मक नहीं हैं ?

 

सभी चीजें और हर एक चीज कलात्मक भाव से करने पर कलात्मक हो सकती है ।

२७ अप्रेल, १९६६

 

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        सुन्दरता एक महान् शक्ति है ।

 

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         आध्यात्मिक सुन्दरता में संक्रामक शक्ति होती है ।

 

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        सुन्दरता को अपनी पूरी शक्ति तब तक नहीं मिलती जब तक वह भगवान् को अर्पित न हो ।

 

         आगामी कल की सुन्दरता : वह सुन्दरता जो भागवत शक्ति को व्यक्त करेगी ।

 

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         भगवान् को अभिव्यक्त करती हुई आगामी कल की सुन्दरता : वह सुन्दरता जो केवल भगवान् द्वारा और भगवान् के लिए ही रहती है ।

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२५९


       सुन्दरता अपने- आपमें काफी नहीं है, वह भागवत होना चाहती है ।

 

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       सुन्दरता का शुद्ध संवेदन केवल महान् शुद्धि के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।

 

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       सुन्दरता का आदर्श अपने अनन्त लक्ष्य की ओर गति करता है ।

 

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       जीवन की सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तुओं में ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम अपनी भौतिक आंखों से नहीं देखते ।

१० नवम्बर, १९६९

 

सामान्य

 

 

       आशावाद : अपने विपरीत की अपेक्षा अधिक सहायक ।

 

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        कुतूहल : अगर हम अपवादिक बनना चाहें तो हमारे गुण हमें अपवादिक बनायें ।

 

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        मानसिक कुतूहल : खतरनाक न बन जाने के लिए इसे गम्भीरता के साथ नियन्त्रित करना चाहिये ।

 

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        भौतिक कुतूहल का मूल्य उसके उद्देश्य से होता है ।

 

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        शुद्ध ब्रह्मचर्य : जरा तपस्यापूर्ण और गर्वीला, यह बहुत संयमी है ।

 

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        कोशिश छोटी-सी चीज है लेकिन वह भविष्य के लिये प्रतिज्ञा हो सकती है ।

 

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        आविष्कारों का कोई उपयोग नहीं अगर वे भगवान् द्वारा नियन्त्रित न हों ।

 

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         सोने का उपयोग भगवान् की सेवा को छोड़कर और किसी चीज में न होना चाहिये ।

 

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         हितैषिता : सरल और मधुर, सभी की आवश्यकताओं की ओर ध्यान देने वाली ।

 

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          निःस्वार्थता : गहराई तक खुली हुई ताकि किसी चीज से इकार न करे ।

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